Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-




55. मागध विग्रह : वैशाली की नगरवधू

राजपरिषद् का वातारण बहुत क्षुब्ध था। महामात्य आर्य वर्षकार पत्थर की निश्चल मूर्ति के समान बैठे थे। सम्राट् क्रोध में लाल हो रहे थे। सम्राट ने कहा—

"मैं पूछता हूं, किसकी आज्ञा से अवन्ती में दूत भेजा गया?"

"मेरी आज्ञा से देव।"

"मेरी आज्ञा से क्यों नहीं?"

"देव को राजनीति का ज्ञान नहीं है।"

"मैंने आज्ञा दी थी कि वैशाली पर अभियान की तुरन्त तैयारी की जाय।"

"मैंने उस आज्ञा-पालन की आवश्यकता नहीं समझी।"

"आपने कैसे यह साहस किया?"

"साम्राज्य की भलाई के लिए देव।"

"परन्तु सम्राट् मैं हूं।"

"परन्तु आप साम्राज्य की हानि भी कर सकते हैं।"

"वह मेरी हानि है।"

"नहीं, वह साम्राज्य की हानि है।"

"मैं सुनना चाहता हूं, मैंने साम्राज्य की हानि की है?"

"तो देव सुनें, कोसल की अपमानजनक पराजय का पूरा दायित्व आप ही पर है।"

"आप पर क्यों नहीं? आपने समय पर सहायता नहीं भेजी।"

"मैं साम्राज्य के अधिक गुरुतर कार्यों में व्यस्त था।"

"सम्राट् की रक्षा से बढ़कर गुरुतर कार्य कौन है?"

"साम्राज्य की रक्षा।"

"सम्राट के बिना?"

"सम्राट् नित्य मरते और पैदा होते हैं देव! वे क्षणभंगुर हैं, साम्राज्य अमर है।"

"आर्य, सम्राट का अपमान कर रहे हैं!"

"सम्राट् स्वयं ही अपना अपमान कर रहे हैं।"

"साम्राज्य का संचालक मैं हूँ।"

"देव का यह भ्रम है। आप उसके एक शीर्षस्थानीय रत्न मात्र हैं।"

"मगध-साम्राज्य का संचालन कौन करता है?"

"यह ब्राह्मण।"

"अब से यह अधिकार मैं ग्रहण करता हूं।"

"मेरे रहते नहीं।"

"मैं आर्य को पदच्युत करता हूं।"

"सम्राट की केवल एक यही आज्ञा मानने को मैं बाध्य हूं।"

"किन्तु मेरी और भी आज्ञाएं हैं।"

"देव कह सकते हैं।"

"आपने राजविद्रोह किया है। किन्तु आप ब्राह्मण हैं, इसलिए अवध्य हैं। परन्तु मैं आपका सर्वस्व हरण करने की आज्ञा देता हूं।"

"मैं ब्राह्मण हूं, इसलिए सम्राट् का यह आदेश भी मानता हूं। परन्तु मेरी एक घोषणा है।"

"आर्य कह सकते हैं, परन्तु अनुग्रह नहीं पा सकते।"

"मैं अनार्य श्रेणिक सम्राट बिम्बसार की अब प्रजा नहीं हूं। सम्राट, यह आपका खड्ग है।"

महामात्य ने खड्ग पृथ्वी पर रखकर आसन त्याग दिया। सम्राट ने कहा—"अप्रजा को मेरे राज्य में रहने का अधिकार नहीं है।"

"मैं मगध को त्यागकर ही अन्न-जल ग्रहण करूंगा।" इतना कहकर महामात्य ने सभा-भवन त्याग दिया और पांव-प्यादे ही अज्ञात दिशा की ओर चल दिए। राजगृह में सन्नाटा छा गया। सम्राट् ने विज्ञप्ति प्रज्ञापित की—"जो कोई आर्य वर्षकार को साम्राज्य में आश्रय देगा, उसका सर्वस्व हरण करके उसे शूली दी जाएगी।" इसके बाद उन्होंने सेनापतियों को वैशाली पर आक्रमण करने की तैयारी करने की आज्ञा देकर सभा भंग की।

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